श्रीलंका का संकट केवल आर्थिक नहीं, अल्पसंख्यक समूहों के खिलाफ भेदभाव का एक लंबा इतिहास
सिडनी. श्रीलंका आर्थिक, राजनीतिक और मानवीय संकट की चपेट में है. शनिवार को एक जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन में, हजारों प्रदर्शनकारियों ने सरकारी कर्फ्यू, सैन्य और पुलिस की भारी उपस्थिति की अवहेलना करते हुए राष्ट्रपति भवन और प्रधान मंत्री आवास पर धावा बोल दिया और उनके इस्तीफे की मांग की. यह प्रदर्शन राजपक्षे सरकार द्वारा आम लोगों को ईंधन की बिक्री रोक दिए जाने के विरोध में किया गया. 1979 में वैश्विक तेल संकट के बाद पहली बार किसी देश को ऐसा करना पड़ा.
कई महीनों से, श्रीलंकाई लोगों को भोजन, ईंधन और अन्य महत्वपूर्ण वस्तुओं की आपूर्ति में कमी का सामना करना पड़ा है. कई हफ्तों से स्कूल बंद हैं. अन्य सेवाएं गंभीर रूप से कम क्षमता पर काम कर रही हैं. विरोध के कुछ घंटे पहले, राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे बिना इस्तीफा दिए देश छोड़कर भाग गए. उन्होंने विपक्षी यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के प्रधान मंत्री रानिल विक्रमसिंघे को अंतरिम राष्ट्रपति नियुक्त किया. यह एक ऐसा कदम है जिसने प्रदर्शनकारियों को और नाराज कर दिया.
राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले कार्यों में, विक्रमसिंघे ने पूरे द्वीप में आपातकाल की घोषणा कर दी. उन्होंने सेना को आदेश दिया कि ‘‘व्यवस्था बहाल करने के लिए जो भी आवश्यक हो वह करें’’. पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस के गोले दागे जा रहे हैं और सेना द्वारा गोलियां चलाई जा रही हैं, फिर भी वे उनके आवास और सड़कों पर कब्जा कर रहे हैं.
कौन हैं रानिल विक्रमसिंघे?
विक्रमसिंघे को प्रदर्शनकारियों द्वारा बहुत तिरस्कृत किया जाता है, जिनमें से कई राजपक्षे परिवार के साथ उनके घनिष्ठ संबंधों की आलोचना करते हैं. लेकिन उनका तमिलों के खिलाफ भेदभाव और सैन्यीकरण का भी एक लंबा इतिहास रहा है. विक्रमसिंघे पहली बार 1977 में संसद के लिए चुने गए थे. वह 1993 से 1996 तक प्रधान मंत्री थे और उन्होंने यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के भीतर वरिष्ठ पदों पर कार्य किया.
एक मध्य-दक्षिणपंथी पार्टी, यूएनपी ने तमिलों के खिलाफ 1977, 1979, 1981 और 1983 में कई हमलों को देखते हुए जातीय तनावों को हवा दी है. पार्टी द्वीप के उत्तर और पूर्व के उपनिवेशीकरण के लिए भी जिम्मेदार रही, जातीय संरचना को बदल दिया और जबरन तमिलों को उनके घरों से बेदखल किया.
राजपक्षे की तरह, विक्रमसिंघे के भी सेना के साथ घनिष्ठ संबंध हैं. इसमें इसके वर्तमान प्रमुख, शैवेंद्र सिल्वा शामिल हैं, जिन्हें 2009 में तमिलों के नरसंहार में उनकी भूमिका के कारण अमेरिका में प्रवेश करने से रोक दिया गया था. विक्रमसिंघे ने संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट को खारिज कर दिया, जिसमें तमिलों के खिलाफ श्रीलंका सरकार के अत्याचारों को रेखांकित किया गया था.
2019 ईस्टर बम विस्फोटों के दौरान प्रधान मंत्री के रूप में, विक्रमसिंघे ने स्वीकार किया कि वह और उनकी सरकार भारत द्वारा संप्रेषित खुफिया जानकारी पर कार्रवाई करने में विफल रहे हैं. इस चूक के परिणामस्वरूप पूरे द्वीप में बम विस्फोटों में 250 से अधिक लोग मारे गए. उन्होंने कहा: ‘‘भारत ने हमें खुफिया जानकारी दी लेकिन उस पर कार्रवाई करने में, हमसे चूक हुई है.’’
सिंहली बौद्ध राष्ट्रवाद से हुई क्षति विक्रमसिंघे और राजपक्षे जैसे राजनेताओं को उनकी सिंहली बौद्ध राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण बहुसंख्यक सिंहली लोगों द्वारा राजनीतिक सत्ता के पदों पर रखा गया है, जिसके परिणामस्वरूप द्वीप पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव और दंगों का एक लंबा इतिहास रहा है. सत्ता के दम पर इन नेताओं ने अर्थव्यवस्था के साथ खिलवाड़ किया और अंतत: देश को दिवालिया करते हुए अपनी व्यक्तिगत संपत्ति को बढ़ाया.
सिंहली बौद्ध विचारधारा के भीतर, कोई भी जो सिंहली-बौद्ध नहीं है, उसके लिए कोई स्थान नहीं है. चूंकि देश का लंबा गृहयुद्ध समाप्त हो गया है, सभी प्रमुख श्रीलंकाई दलों ने श्रीलंकाई राज्य की आलोचनाओं को खारिज कर दिया है, जिसमें मानवाधिकारों के उल्लंघन और तमिलों के खिलाफ किए गए युद्ध अपराधों की जांच के लिए अंतरराष्ट्रीय आ’’ान शामिल हैं. बड़े पैमाने पर विरोध के बावजूद राजपक्षे का इस्तीफा देने से इनकार, उनके अधिनायकवाद का एक प्रमाण है, जिसे सिंहली बौद्ध राष्ट्रवाद के लिए भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.
वास्तव में, श्रीलंका का संविधान बौद्ध धर्म को सर्वोच्च शक्ति प्रदान करता है, जिससे हाशिए के समूहों के खिलाफ चल रहे भेदभाव का मार्ग प्रशस्त होता है. यह भेदभाव 1956 में शुरू हुआ, जब प्रधान मंत्री एस.डब्ल्यू.आर.डी. भंडारनायके ने सिंहली केवल अधिनियम लागू किया, जिससे सिंहली द्वीप की आधिकारिक भाषा बन गई और तमिलों को प्रमुख रोजगार क्षेत्रों से बाहर कर दिया गया.
जैसा कि राजनीतिक विशेषज्ञ नील डेवोटा श्रीलंका के राजनीतिक बर्बादी के रास्ते की व्याख्या करते हैं: यह राष्ट्रवाद था जिसने योग्यता में निहित शासन को जातीयता द्वारा प्रतिस्थापित करने में सक्षम बनाया, जिसने समय के साथ देश के सबसे खराब नागरिकों द्वारा चलाए जाने वाले काकिस्टोक्रेसी – शासन का नेतृत्व किया.
एक धूमिल दृष्टिकोण
सरकार विरोधी प्रदर्शनकारी सड़कों पर अपना रोष व्यक्त करते रहेंगे. लेकिन अगर वे सार्थक राजनीतिक परिवर्तन पर जोर देने जा रहे हैं, तो उनकी मांगों को द्वीप पर सभी का प्रतिनिधि होना चाहिए, खासकर उन लोगों का जिन्हें लगातार श्रीलंकाई सरकारों द्वारा ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रखा गया है.