चार लाख हेक्टेयर क्षेत्र में प्राकृतिक खेती, नीति आयोग तैयार करेगा रूपरेखा: तोमर
नयी दिल्ली. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंहतोमर ने सोमवार को कहा कि ‘परंपरागत कृषि विकास योजना’ की एक उप-योजना के तहत अब तक लगभग चार लाख हेक्टेयर क्षेत्र को प्राकृतिक खेती के तहत में लाया गया है और इसे विस्तार देने के लिए नीति आयोग एक रूपरेखा तैयार करेगा.
तोमर ने नवाचारी कृषि पर आयोजित एक राष्ट्रीय कार्यशाला को संबोधित करते हुए कहा कि आज के वक्त की जरूरत हो चुकी है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर की जाने वाली, उत्पादन की लागत कम करने वाली, अच्छी गुणवत्ता वाली उपज देने वाली और किसानों को मुनाफा देने वाली खेती की जाए. उन्होंने कहा कि आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और गुजरात के कुछ हिस्सों में किसान धीरे-धीरे प्राकृतिक खेती को अपना रहे हैं. उन्होंने कहा कि इस दिशा में मिली कामयाबी देखने के बाद और किसान भी इससे जुड़ेंगे.
तोमर ने कहा कि नीति आयोग इस कार्यशाला में किसानों, वैज्ञानिकों और कृषि विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के साथ विचार-विमर्श कर प्राकृतिक खेती के बारे में एक रूपरेखा तैयार करेगा और कृषि मंत्रालय उसी का अनुसरण करेगा. उन्होंने कहा, ‘‘कुछ लोगों को ऐसी आशंका हो सकती है कि प्राकृतिक खेती करने से कृषि उत्पादन में गिरावट आ सकती है. ऐसे लोग प्राकृतिक खेती में मिली सफलता से अवगत होने के बाद इसे आसानी से अपना सकते हैं.’’
प्राकृतिक खेती आज समय की जरूरत बन चुकी है : अमिताभ कांत
नीति आयोग के मुख्य कार्यपालक अधिकारी (सीईओ) अमिताभ कांत ने प्राकृतिक खेती को समय की जरूरत बताते हुए सोमवार को कहा कि इस समय रसायनों और उर्वरकों के उपयोग के कारण खाद्यान्न उत्पादन की लागत बढ़ गई है. कांत ने नीति आयोग की तरफ से ‘नवाचार कृषि’ पर आयोजित कार्यशाला को संबोधित करते हुए कहा कि भारत अब गेहूं और चावल का निर्यातक बन चुका है. हालांकि, अकुशल आपूर्ति शृंखला और अधूरे बाजार संपर्कों के कारण भारत की कृषि क्षेत्र की उत्पादकता कम है.
उन्होंने कहा, ‘‘प्राकृतिक खेती समय की जरूरत है और यह महत्वपूर्ण है कि हम वैज्ञानिक तरीकों की पहचान करें ताकि यह सुनिश्चित कर सकें कि किसान इससे सीधे लाभान्वित हों और उनकी आमदनी बढ़े.’’ कांत ने कहा, ‘‘रसायनों और उर्वरकों के अधिक उपयोग के कारण खाद्यान्नों और सब्जियों के उत्पादन की लागत बढ़ गई है.’’ प्राकृतिक खेती में रसायनों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है और इसे कृषि-पारिस्थितिकी पर आधारित खेती की विविध प्रणाली के रूप में देखा जाता है. यह जैव विविधता के साथ फसलों, पेड़ों और मवेशियों को भी समाहित करते हुए चलती है.